Monday, September 10, 2012

तिग्मांशु धुलिया निर्देशित फिल्म पानसिंग तोमर बार-बार देखी जानी चाहिए. यह फिल्म पानसिंह तोमर के ऎथलिट से बागी बनने तक की कहानी है. पानसिंह तोमर सफल फिल्म होने के तमाम हथकंड़ो का मुँहतोड़ जवाब है. मुरैना क्षॆत्र के इस बाधा दौड़ धावक का इरफान खान द्वारा अविस्मरणीय अदायगी वाली फिल्म है. मुझे यह ऎसी पहली फिल्म लगी जिसमें नायक की विजयी\अविजयी दौड़ को बिना किसी अतिरेक के स्वाभाविकता के साथ दिखाया गया है.

हालांकि फिल्म का एक-एक फ्रेम प्रभावशाली है लेकिन कुछ दृश्य अतिप्रभावशाली है जैसे पान सिंह द्वारा थानेदार को वर्दी से माफी मांगने को कहना, पानसिंह बागी हो जाने के बाद भी वर्दी की सम्मान करना नही भुलता, यही दृश्य बागी को नायक के रूप में प्रतिष्टित करता है. थानेदार जिस तरह से थाने में मैडल और फोटो का उसी के होने का सबूत मांगता है फिर उसे पानसिंह के मुँह पर फेंकना, उसका अपमान था. बागी होने के बाद पानसिंह चाहता तो थानेदार को मार सकता था.

इसी तरह फिल्म मे ऎसे बहुत से यादगार दृश्य है जो गुदगुदाते भी है और भावुक भी कर देते है. जैसे पानसिंह की भूख. अफसर द्वारा ड्युटी पर दो दिन देर से आने की वजह पूछे जाने पर पानसिंह जवाब देता है कि खड़ी फसल कैसे छोड़ आते. इसी तरह बागी बनने के बाद पानसिंह जब अपने बेटे से मिलने जाता है तब शरमाते हुये बेटॆ से मम्मी के बारे में पूछना, गजब का था. बेटे को आर्मी पर कम और पिता पर ज्यादा गर्व है. बेटे का यह कहना कि उसकी शादी तो आपके बागी बन जाने की वजह से ही लगी. वही उनके नायक है. वहीं आईस्क्रीम का तीनों सिक्वेंस बेहतरीन था. चाहे वह चार मिनट में अफसर के घर में आइसक्रीम पहुँचाने की बात हो या पत्रकार को जर्मन आइसक्रीम के बारे में बतलाने की या फिर उसी अफसर द्वारा पानसिंह के रिटायर होने पर आइसक्रीम तोहफे में दिये जाने पर उसे सबसे बड़ा मेडल कहना हो. यह बरसों के रिश्ते का सबसे ज्यादा बेहद भावुक क्षण था.

बागी किन परिस्थितियों में रहते है उसका अच्छा चित्रण हुआ है. आमतौर से बागियों के लिए डर का भाव पैदा होता है लेकिन फिल्म अतिनाटकीयता से बची रही. बागी धार्मिक भी होते है और शायर भी. एकता उनकी ताकत होती है और आत्मसम्मान सबसे ऊपर. इसलिए मरना पसन्द लेकिन आत्मसमर्पण नही.

चुंकि पानसिंह आदतन अपराधिक प्रवृत्ति का नही था इसलिए रॆडियो पर अपनी बागी होने की खबर सुनकर मीडिया की सनसनीखेज खबर पर गुस्सा जाहिर करता है कि जब उसने देश के लिए खेल कर मैडल जीता तब किसी उसे गम्भीरता से नही लिया. बागी बनने से पहले पानसिंह को सबसे ज्यादा गुस्सा चचेरे भाई द्वारा उसकी माँ को बन्दुक के कुन्दे से मारे जाने पर आया था. फिल्म में उसका पहला गुस्सा भी तब सामने आया जब उसके कोच ने उसे माँ की गाली दी थी और फिर गुस्से का इस्तेमाल दौड़ में लगाया और जीता.

जब पानसिंह एशियन गेम्स खेलने गया तब कोच के साथ खाने-पीने सुविधा व जुते को लेकर साफगोई से की गई बातचीत भी मजेदार है और भारत में एथलिट की हालात बयां करती है. अचानक से मिली सुविधाएँ व तामझाम खिलाड़ियों को असहज बना देती है इसलिए दौड़ते समय पानसिंह का ध्यान दौड़ने में कम और जुते पर ज्यादा था. अंतत: दौड़ के बीच में ही उसने जुता उतार फेका और स्वाभाविक दौड़ा. आज भी हालात मोटे तौर पर जस के तस है.   


पान सिंह को युद्ध में केवल इसलिए नही भेजा गया क्योंकि वह धरोहर है. युद्ध में न भेजा जाना उसके लिए कड़वे घुट से कम नही था. इसलिए, समाज व व्यवस्था से न्याय नही मिलने के कारण युद्ध के लिए वह हथियार उठा लेता है. पानसिंह को अपने बागी होने पर उतना गर्व नही था जितना कि सेना मे होना, खिलाड़ी होना, आदर्श बेटा, पति होना और एक परिपक्व आदर्श पिता होना जो विपरित परिस्थितियों से गुजरने पर भी बिना विवेक खोये अपने बेटे को देश की रक्षा करने लिए सेना में भेजता है.

बागियों का जीवन व विचारधारा को निकट से जानने-सूनने की उत्सुकता के साथ बहुत कुछ दाँव पर लगाकर रिपोर्टिंग करना पत्रकार के लिए जोखिम के साथ-साथ रोमांचक भी होता है, जिसे बखुबी दिखाया गया है. इरफान खान द्वारा एक खिलाड़ी और बागी जीवन के साथ-साथ, पानसिंह जिस पृष्ठभुमि से सेना में गया उसकी संवादगी, सादगी, निडरता, भोलापन व भीतर के गुस्से की कमाल की एक्टिंग की गई है.

फिल्म में एक भी गीत नही है, और ब्रेक भी अनावश्यक लगता है. सभी पात्रों ने अपना-अपना श्रेष्ठ काम किया है. माही गिल ने अपनी पिछली अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म देव-डी की तरह इस फिल्म में भी पात्र के साथ न्याय करने की कोशिश की है. यह नायक प्रधान नही, कहानी प्रधान फिल्म है और दर्शको ने इसे भरपुर सराहा है. थियेटर से निकलने के बाद भी यह दिलोदिमाग पर छाई रहती है. फिल्म की तरह ही कुछ और भी ऎसी घटनाएँ जो दिलोदिमाग पर छाई है.  

पिछले कुछ ही दिनों की घटनाओं ने देश को चौंकाया है पहला- मुरैना के ही आईपीएस नरेंन्द कुमार की हत्या और छत्तीसगढ़ के राहुल शर्मा द्वारा की गई आत्महत्या. दोनों युवा और आईपीएस. दूसरा- उत्तरप्रदेश का चुनाव. 

मुरैना क्षेत्र में भु-माफियाओ ने एक आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र कुमार की हत्या कर दी. जिसकी आईएएस पत्नी गर्भवती है. अगर बेटा हुआ तो क्या वह बड़ा होकर बागी बनेगा या पिता की तरह ईमानदार पुलिस अफसर? इस घटना के बाद भूमाफिया और पूर्व डकैत कुबेर सिह गिरफ्तार किया गया है. क्या इससे इंकार किया जा सकता है कि कुबेर सिंह भी व्यवस्था की उपज नही होगा. 

यह वही क्षेत्र है जहाँ के सटे राज्य में विधानसभा चुनाव हुये है, जहाँ से समाजवादी पार्टी भारी मत से जीती है और अखिलेश यादव देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने है. अखिलेश यादव ने पहले घोषणा की थी कि पिता, मुलायम सिंह यादव ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन जिस नाटकीयता के साथ अखिलेश यादव की ताजपोशी की गई वह राहुल गाँधी को कम पीड़ा नही दे रही होगी. उस पर भी तब जब उसे भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा हो. आज राहुल गाँधी अपने पिता की कमी जरूर महसूस कर रहे होंगे.

फिल्म के अंत में उन प्रतिभावान लोगों की सूची है जिन्होने देश-विदेश में भारत का नाम रोशन किया है.  जिन्हे समाज और सरकार द्वारा पर्याप्त सहायता व सम्मान नही मिलने के कारण अभाव व मुश्किल में दिन गुजारने पड़े. समाज अच्छे कामों की सराहना बहुत देर बाद करती है. कई बार तो मर जाने के बाद. लेकिन इनकी चिंता न तो अखिलेश यादव को है और न ही राहुल गाँधी को. 


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