Tuesday, November 11, 2008

द्रविणों पर आर्यो का हमला

इस बार नवरात्रि बस्तर में ही बीती. पिछले बार की तरह इस बार भी सफ़र बाईक पर ही था लेकिन पहले से बहुत ज्यादा लम्बा दूरी लगभग 1300 कि.मी. बस्तर जाने से पहले मैंने पं. जवाहर लाल नेहरू की “विश्व इतिहास की झलक” पढ़ना शुरू किया था. लगभग 200 पृष्ठ पढ़ लेने के बाद बस्तर चला गया. मोटॆ तौर पर आर्य, द्रविण, जाति, धर्म और सत्ता की लड़ाई, बर्बरता, कबिलाई संघर्ष और कला और संस्कृति के बारे में पढ़ी बहुत सी बांते मेरे दिमाग मे ताजा थी. इस पुस्तक ने मेरे कम सोच और समझ को थोड़ा और बढ़ाने में मदद की. मुझे सहसा विश्वास नही हो रहा था और कभी-कभी तो ऎसा लगता था कि मैं हजारों साल पहले का दृश्य वर्तमान में देख रहा हूँ. मानो, जो मैं पढ़ रहा हूँ, उसे मैं जी भी रहा हूँ, बस्तर में.

जिस दिन मैं भिलाई से निकला वह दिन था, 1 अक्टूबर और अगले दिन 2 अक्टूबर यानी गांधी जयंती के दिन वनवासी चेतना आश्रम के हिमांशु जी द्वारा न्याय एवं शांति रैली निकाली गई. इसे देखने की इच्छा थी. पिछले साल भी गांधी जयंती के दिन मैं रायगढ़ गया था जहाँ मेधा पाटेकर जी आई थीं. शहीद सत्यभामा जी को श्रद्धांजली देकर अन्य लोगों के साथ तमनार ब्लॉक के “गारे” और “राबो” गाँव पहुंचे थे जहाँ कुछ दिन पहले ही जिन्दल कोल माईंस और राबो बान्ध के खिलाफ की जा रही एक जन सुनवाई के दौरान लाठी चार्ज हुई थी और 105 ग्रामीण घायल हुये थे जिसमें 11 लोग गम्भीर रूप से घायल हुये थे. इस साल भी छत्तीसगढ़ के एक ऎसे क्षेत्र में गांधी जयंती देखने/मनाने गया जहाँ घोर अशांति है. इस बार की दंतेवाड़ा की रैली में लगभग 200-300 आदिवासी शामिल हुये थे. सभी नक्सली और सलवा-जुडुम प्रभावित थे और अपनी मूलभूत जरूरतों की मांग कर रहे थे.

सुबह-सुबह, जगदलपुर से दंतेवाड़ा की ड्राईव बड़ी सुहावनी थी. ठंडी की शुरूआत थी, हल्की सूरज की रोशनी पड़ते ही दूर-दूर तक गहरी धुन्ध फैल गई और 10-20 मीटर से आगे कुछ दिखाई नही दे रहा था. बड़ी सुनहरी और सुहावनी सुबह थी. इस रस्ते पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वह था नवरात्रि के पद यात्री. इसके बारे में आगे और भी बहुत सी बातें लिखना है लेकिन बस्तर में ऎसा पहली बार हुआ कि लोग डोंगरगढ़ की तरह पैदल दंतेश्वरी माता के दर्शन के लिये जा रहे है. एस्सार ने रास्ते भर ठहरने और खाने-पीने की व्यवस्था की थी.

जहाँ सैकड़ो सालों से रोज या हर हफ्ते यहाँ के आदिवासी कई किलोमीटर भूखे-प्यासे पैदल चल कर बाज़ार या अन्य काम के लिये कस्बे या शहर आते है वहीं शहरी सभ्य समाज के नौजवान लड़के-लड़कियाँ पाँव में पट्टी बांध-बांध कर पद यात्रा कर रहे थे और उनकी यह दशा देखकर साथ चल रहे आदिवासियों को थोड़ा सुख तो जरूर मिला होगा.

खैर, मैं दंतेवाड़ा पहुंचा और सीधे वहाँ गया जहाँ से रैली शुरू होनी थी. धीरे-धीरे लोग इकट्ठे होने शुरू हुये. लोगों को इस तरह इकट्ठे होते देख मुझे लगभग तीन साल पहले सलवा जुडुम पर बनाये जाने वाले एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म की याद आ गई, तब सलवा जुडुम को शुरू हुये ज्यादा दिन नहीं हुये थे और हम भैरमगढ़ और पास की कुछ नक्सली प्रभावित गाँवों में रैली के साथ-साथ गये थे.

लेकिन उस शांति रैली और आज के शांति रैली में नि:सन्देह अंतर है. रैली में दोनों तरफ से प्रभावित लोग शामिल थे और अब वे सामान्य जीवन जीने के लिये संघर्ष कर रहे है. शाम होते-होते सभी अपने-अपने घरों को लौट गये. दिन भर की रैली और फिर इस पर शहरी नजरान्दाजगी देखकर मन भारी हुआ कि सैकड़ों की संख्या में लोग दंतेश्वरी माता के दर्शन के लिये लोग दूर-दूर से आ रहे है लेकिन शहर में हो रही इस रैली/गतिविधि के बारे में शहर में कोई चर्चा तक नही है. सारे युवा और सभ्य समाज चुप्प है. क्यों युवा वर्ग अपने आस-पास घट रही इन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया नही दे रही? आज बस्तर ही नही पूरे प्रदेश में युवा ताकत इसी तरह से निष्क्रिय है और प्रतिरोध नही कर रही है.

इस रैली में एक छोटा सा 5-6 साल का बच्चा भी था जो पूरे समय अपने साथ एक ए.के.47 रायफल (खिलौने का) रखे रहा. उसके पिताजी ने बतलाया कि “मिज़ो फोर्स के लोग इसके हीरो है और यह बहुत दिनों से उन्ही की तरह बन्दूक रखने की ज़िद कर रहा था.”

कुछ महीने पहले मेरी मुलाकात पखान्जूर के मांड क्षेत्र से आये एक परिवार से हुई थी. उनमें से 30-32 साल के एक लड़के ने बतलाया था कि जब वह 5-6 साल का था तब पहली बार नक्सली उसके गाँव आये थे और आज उनका गाँव नक्सली और पुलिस के बीच पिस रहा है.

किस तरह से लोग और बच्चे बन्दूक के साये में पल-बढ़ रहे है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है. क्या नक्सली, सलवा जुडुम या फोर्स (सरकार) एक पीढ़ी के बाद फिर दूसरी पीढ़ी को यही विकल्प या आदर्श के रूप में पेश कर रहे है?

खैर, दूसरे दिन “नेन्द्रा” जाना हुआ. “नेन्द्रा”, दंतेवाड़ा जिले का एक ऎसा गाँव है जिसे चार बार जलाया है और कई लोगों को मारा गया है. वनवासी चेतना आश्रम के प्रयास से अब कुछ लोग वहाँ रहने आये है, जो भागकर आन्ध्रप्रदेश चले गये थे. वे आश्रम के सहयोग से अस्थाई घर बना कर रह रहे है और आश्रम द्वारा राशन की मदद दी जा रही है. लोग अब अपने घर/गाँव वापस आना चाहते है. खेती करना चाहते है और फिर पहले की तरह जीना चाहते है. यह तो सिर्फ एक गाँव की बात है दंतेवाड़ा में तो ऎसे बहुत से गाँव से है.

घने जंगल में 8 कि. मी. पैदल चलकर हम इस गाँव तक पहुंचे. कितने टूटे, परेशान और निराश दिखे यहाँ के लोग. समझ पाना बहुत मुश्किल है कि कोई कैसे इनके घरों को आग लगा सकता है, कैसे मार सकता है. यहाँ रह रहे लोगों ने जो आप-बीती सुनाई वह किसी भयंकर बुरे सपने से कम नहीं थी. किसी भी स्थिति को समझने और जानने के लिये मुझे लगता है कि वहाँ जाना और लोगों से बात करना बहुत जरूरी है. लोग कैम्पों में कैद है. जगह-जगह चेकिंग पोस्ट है, मिलेट्री है, फोर्स है. यहाँ हर कोई संदिग्ध है और एक-दूसरे के दुश्मन है.

“विश्व इतिहास की झलक” के पृष्ठ 505 में उल्लेख है- फ्रांस की राज्य क्रांति पर लिखने वाले थामस कार्लाइल नामक एक अंग्रेज लेखक ने जनता के हाल जो बयान किया है, वह एक निराली शैली है- “श्रमजीवियों की हालत फिर खराब हो रही है. दुर्भाग्य की बात है! क्योंकि इनकी संख्या दो-ढ़ाई करोड़ है. जिनको हम एक तरह की धुँधली घनी एकता के हैवानी लेकिन धुँधले, बहुत दूर के गँवारू भीड़ जैसे लौंदे में इकट्ठा करके कम्यून, या ज्यादा मनुष्यता से, ‘जनता’ कहते है. सचमुच जनता, लेकिन फिर भी यह अज़ीब बात है कि अगर कल्पना पर जोर डाल कर आप इनके साथ-साथ सारे फ्रांस में इनकी मिट्टी की मड़ैयों में, इनकी कोठरियों और झोपड़ियों में, चलें, तो मालूम होगा कि जनता सिर्फ इकाईयों की बनी हुई है. इसकी हरेक इकाई का अपना अलग-अलग दिल है और रंग है, वह अपनी ही खाल में खड़ा है और अगर तुम उसे नोचोगे तो ख़ून बहने लगेगा.” सोलहवें लुई के राज में फ्रांस की यही हालत थी. यह बयान 1789 ई. के फ्रांस पर ही नही बल्कि 2007 के बस्तर पर कितनी अच्छी तरह फबता है.

और फिर आगे पृष्ठ 662 पर एक कविता है-
“ज़ुल्मियों से मिल गये और हो गये बस शांत कर इकट्ठे दूसरों के ताज और सिद्धांत
और चिथड़े और कुछ टुकड़े मुलम्मेदार पहनकर फिरने लगे सब लाज शर्म बिसार.”

आज इस चुनाव के समय में राजनीतिज्ञों पर इससे अच्छी कविता और क्या हो सकती है?

नगरनार और लोहंड़ीगुड़ा भी गया जहाँ उद्योग लगने है, लोगों को कोई स्पष्ट जानकारी नही है और लोग भविष्य को लेकर भयभीत भी है. अलग-अलग राजनैतिक दल के लोग वहाँ जाते रहते है और सांत्वना देते रहते है. जब मैं नगरनार पहुंचा तब लोग धरना देने की तैयारी में थे. ये वे लोग है जिनका जमीन ले लिया गया है और वायदानुसार आज तक इन्हें नौकरी नहीं मिली है और न ही खेती करने दिया जा रहा है. लोहंड़ीगुड़ा के लोग तो और भी ज्यादा डरे हुये है. ग्रामीण कुछ भी बोलने और बतलाने से भी कतरा रहे है.

आज बस्तर को विकास और सभ्य बनाये जाने के नाम पर जबरदस्ती की जा रही औद्योगिकीकरण और गैर-आदिवासियों की बढ़ती घुसपैठ, राजनैतिक दलों और धार्मिक संगठनों की मिलीभगत से की जा रही लूट और निरीह हत्याओं की असलियत और साजिश सामने आ रही है.

खैर, इन विषयों पर बहुत सी बातें होती रही है और आगे भी होती रहेगी. कुछ और भी मार्के की बातें है जो गम्भीर है.

बस्तर का दशहरा भारत का एक अनोखा दशहरा है, भगवान श्री राम का इससे कोई लेना देना नहीं है. वैसे भी यह दंण्डकारण्य है और दन्तेवाड़ा के उत्तर-पश्चिम में लंका नामक एक जगह भी है और इस अंचल में रावण मारने की भी कोई परम्परा भी नहीं है. बस्तर दशहरा का सरकारीकरण हुआ सो हुआ लेकिन पिछले कुछ सालों में इस उत्सव में गैर आदिवासियों का दखल और दबदबा बढ़ गया है. बस्तर दशहरा के कमेटी में गैर-आदिवासी, बाहरी, व्यापारी, उच्च वर्गों का कब्जा हो रहा है. इनके बीच आदिवासी घुटन महसूस कर रहे है. जय माता दी और जय श्री राम आदि के नारे आदिवासियों को चुभ रहे है. लाऊड स्पीकरों और सरकारी बैंड के शोर में इनका पारंपरिक वादन दब गया है. जिस दिन का इंतजार यहाँ के आदिवासियों को साल भर से रहता है, जिसके लिये वे दिन-रात तैयारी में लगे रहते है, कुछ ही घंटे में निराश, हताश और अपमानित महसूस करते है. इनके पूजा-पाठ के तौर-तरीकों, नाच-गान और देवताओं के साथ झूपने का मजाक उड़ाया जाता है.

दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी मन्दिर में कुछ सालों से जसगीत शुरू हुआ. जगदलपुर के दंतेश्वरी मन्दिर में सांई बाबा का चित्र टंगी देख आश्चर्य होता है. मन्दिर के पुजारी बतलाते है कि एक प्रभावशाली स्थानीय कांग्रेसी नेता ने किस चतुराई के साथ सांई बाबा को मन्दिर में एंट्री दिलवाई. जगदलपुर में एक 50-60 फीट की हनुमान की मूर्ति स्थापित की गई है. पिछले कुछ सालों में बजरंग दल, शिव सेना और अन्य हिन्दू धर्म के संघठनों ने बड़ी तेजी से पैर फैलाया है. हजारों साल पहले हुये “द्रविणों पर आर्यो का हमला” आज भी अपने तरिके से जारी है.

बस्तर के दशहरे पर्व में आदिवासी समाजों की अपनी-अपनी विशिष्ट स्थान और जिम्मेदारियाँ है लेकिन गैर आदिवासी, धार्मिक और राजनैतिक दल के पदाधिकारी, व्यापारी और उच्च वर्ग मिलकर इन पर अपना कब्जा कर रखा है. आने वाले कल में दंतेश्वरी माई की छतरी उठाने वाला कोई अन्य राज्य का, कोई सिन्धी, कोई बनिया या यही लोग रथ खींचने भी लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. जब तक उद्योग नहीं लगे हैं तब तक जितना बचा है बचा है, जैसे ही लगेगा सब खत्म.

ये शहरी सभ्य समाज के लोग बड़े गर्व से यह कहते है कि हमने इन आदिवासियों को जीने का तरीका सिखाया है, कपड़े पहनना सिखाया है नहीं तो ये जंगलों में नंगे रहते थे. इन असभ्य लोगों को हमने सभ्य बनाया है. इन सभ्य समाज के ठेकेदारों को यह नही भूलना चाहिये कि इनका धन्धा इन्हीं से चलता है. नेताओं को समझना चाहिये कि वे इन्हीं जनता के द्वारा ही चुने जाते है.

नक्सलियों को बस्तर में पैर जमाये 30 साल हो गये लेकिन इसके बाद भी बस्तर में एक भी ऎसा नेता या आग पैदा नहीं हुआ जो दमन, शोषण और अपमानजनक विचारों का खात्मा करें या इतना डर पैदा करे या इन आदिवासियों में इतना आत्मविश्वास पैदा करें कि ऎसी सोच को कुचला जा सकें. दुर्भाग्य है!

बस्तर में जितने भी प्रकार के आदिवासी हस्तकलाएँ थी, खत्म हो गई. मुझे याद है कुछ साल पहले तक ही बहुत से परिवार थे जो टेराकोटा, बेलमेटल, रॉट आयरन और लकड़ी के खुबसूरत कलाकृतियाँ बनाते थे लेकिन देखते-ही-देखते आज कलाकार या तो यह काम छोड़ दिये है या तो बड़े व्यापारी के यहाँ काम करने को मजबूर हैं, क्योंकि इनके बाजार को पूरी तरह से इन्हीं लोगों ने कब्जा कर रखा है. करोड़ो-अरबों खर्च करने के बाद भी राज्य सरकार इन्हें बचा नहीं पाई.

विकास के नाम पर आदिवासियों की भावनाओं को यहाँ तक कुचला गया कि इनके मृतक स्तम्भों को तोड़-तोड़ कर चमकदार सड़कें बना दी गई. मुझे याद है कि झारखण्ड में कोयलकारो परियोजना को वहाँ के आदिवासियों ने केवल इसलिये नही बनने दिया कि वे अपने गाँव के देवताओं को जलमग्न नहीं होने देना चाहते थे. क्योंकि यही उनकी एक पहचान है. लेकिन छत्तीसगढ में इतना कुछ होने के बाद भी ऎसी स्थिति नही बन पाती है कि कोई बड़ा आन्दोलन खड़ा हो और न ही ऎसे नेतृत्व है जो जनता के लिए लड़े और न ही कोई ऎसा जन संगठन है जो गदर मचा सके.

लेकिन बस्तर सिर्फ समस्या ही नहीं है, और भी बहुत सी अच्छी बातें भी है जिसको जानना और समझना अभी भी बाकी है. देवी-देवताओं और मान्यताओं में यहाँ के आदिवासी अभी भी पूरी तरह से विश्वास रखते है. जंगल, जीवन और लोक कथाओं की बड़ी समझ, अभी भी बाकी है. मेरे जैसे फिल्मकार के लिये बस्तर का दशहरा एक बहुत बड़े अवसर की तरह है क्योंकि यही वह समय होता है जब पूरे बस्तर से विभिन्न क्षेत्र से आदिवासी आते है और बहुत से लोगों से मिलने, बातचीत करने, जानने और समझने का मौका मिलता है. यही के राजमहल के अहाते में मुझे बड़ॆ-डोंगर के पास के गाँव से आये एक बुज़ुर्ग से मुलाकात हुई जो अपनी जवानी में घोटुल जाते थे और उन्होने मुझे दिनभर थके होने के बावजूद रात में लगातार चार घंटे ऎसे-ऎसे गीत सुनाये जो अब गाएँ नहीं जाते.

“विश्व इतिहास की झलक” पढ़कर पता चलता है कि समाज और सभ्यता किस तरह से बनती और बिगड़ती है. जब हम वर्तमान में घटनाओं को होते देखते है तब दिल-दिमाग आन्दोलित होना स्वाभाविक है.

तेजेन्द्र

2 comments:

cg4bhadas.com said...

मेरी नजर आज आपके ब्लाग पर पड़ी बहुत बढ़िया है बस्तर दशहरा के फोटो हमें भेजिएगा धन्यवाद

cg4bhadas.com said...

मेरी नजर आज आपके ब्लाग पर पड़ी बहुत बढ़िया है बस्तर दशहरा के फोटो हमें भेजिएगा धन्यवाद